बंधन ने घेरा है




बंधन ने घेरा है
ख्वाबो पे पहरा है 
घुप से सन्नाटे है 
छाया घनेरा हैं 
 स्याह अँधेरे में 
छुपता सवेरा है 

घोड़े सी सोचों का
ये मन तबेला था 
खींचती लगामों से
अब क्यों ये ठहरा है
आजाद पंछी ये 
एकदम अकेला है 
बिखरे परो को ले 
कोटर में बैठा है 

शतरंजी चालों को
कैसे ये खेला है
आपने ही मोहरों ने
रानी को घेरा है 
आँखों ने वकृत सा 
व्यक्तित्व देखा है 
दर्पण में दीखता 
क्या मेरा ही चेहरा है ?

रेशम के धागों से
एक घर बनाया है
आपने ही जले ने
मकड़ी को घेरा है 
बंधन ने घेरा है 
ख्वाबो पे पहरा है 



Comments

Popular posts from this blog

Kavita- मैं राम लिखूंगी

चाय

मन मेरा बेचैन है