धरती की व्यथा

आज मानव कोरोना जैसी वैश्विक महामरी से त्रस्त है।  ये बीमारियां, प्रदुषण  और बहुत सी ऐसी ही परेशानियों का आज हमे सामना करना पद रहा है।  और ये मानव जाती की वर्षो से चली आ रही शोषण की नीति का परिणाम है।  मानव ने जिस तरह धरती को प्रदूषित किया है हुमाज उसी के परिणाम भोग रहें हैं।  
 
अक्सर सोचती हूँ अगर आसमान नीचे उतर आये तो हम क्या उसे भी इसी तरह शोषित करेेंगे। ये कविता इसी पर आधारित है।
 
एक बार आसमान ने धरती से नीचे आने की इच्छा प्रकट की, तब धरती ने आसमान से अपनी पीड़ा इन शब्दों में बयां की -
आसमान ने धरती को इच्छा अपनी बतलायी हैं 
एक बार तुझ संग धरती  में नीचे रहने को आऊँगा 
आँखों में आंसू थे उसके, ऐसे  तड़प उठी थी धरती 
पीड़ा से करहा कर  बोली, तू  कैसे यहाँ रह पायेगा 

गर तू नीचे आएगा, तू टुकड़ो में बट जायेगा
कोई अमेरिका, कोई रूस और कोई चीन कहलायेगा
खींची पड़ी इन सरहद में, तू सांस नही ले पायेगा
और भड़कती नफ़रत से फिर दम तेरा घुट जायेगा

रौशनी तेरी, छोटे छोटे टुकड़ो में बाँटी जाएगी
और कीमत उसकी रख बाजार में बेचीं जाएगी
जो दाम चुका ले जायेगा, वही सुबह उठ पायेगा
जो नहीं उसे ले पायेगा, वो रातों में रह जायेगा

कुछ मुठ्ठी भर तारें  लेंगे, किसी हिस्से चाँद ये आएगा
कुछ किस्मत सूरज सी चमकी, कोई बदल में खो जायेगा
तेरा निर्मल ये नीला रंग, काला काला हो जायेगा
इन लोगो में बटते बटते, तू खुद ही खुद खो जायेगा


आँखों में अश्रु धार लिए, धरती फिर प्रेम से है बोली
तू दूर है पर खुशहाल तो है, तू यहाँ नहीं क़ुछ पायेगा
मैं हर पल सहती हूँ मरती, तू नहीं ये सब सह पायेगा
नीचे मत आ ऊपर ही रह, वार्ना मुझसा हो जायेगा
वार्ना मुझ सा हो जायेगा.......

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