उसी झील पे

आज गयी थी उसी झील पे , हम  तुम पहली बार मिले थे
तेरे प्रथम प्रणय निवेदन से , सपनो के संसार सजे थे
आसमान खुशियों से रोया, और ज़मीं कुछ पिंघळी सी थी
लहरों सी उठती गिरती वो एक घटा कुछ उमड़ीं सी थी
और कनेरी घूप बिछि थी सेज हमारी बनने को
चिड़ियों की बोली लगती थी शहनाई सी बजने को

आज वहां पर वीरानी थी तन्हाई सी छायी थी
बरखा जैसे चली गयी थी ऋतू पतझड़ की आयीं थी
गिरते थे मुरझा मुरझा कर  अपनी उन यादो  के पत्ते
कैसे उड़ने देती उनको प्यार भरे वो खत तेरे थे
सूखे थे बिलकुल अंदर तक आग पकड़ली जल्दी से
जल के अब बुझ ही जायेंगे टुकड़े ये मेरे दिल के

राख बनीं उन यादों को भी हवा ले गयी संग अपने
और बचे अवशेष भी अब तो मिल जायेंगे  मिट्टी में
आओगे जब भी तुम ऐसे इस झील के कोने पे
मुठ्ठी में लेना तुम मिट्टी और गिरना पानी में
सपने मेरे दिख जायेंगे तुम्हे झील आईने में
और दफ़न हो जायेंगे वो इसी झील के पानी में


Comments

Popular posts from this blog

Kavita- मैं राम लिखूंगी

चाय

मन मेरा बेचैन है