ताजमहल-Poem on domestic violence




चीखती, करहाती, बिलखती एक आवाज़ 
दफ़न हो गयी ताजमहल में मुमताज़ 

उसके सपनो का वो ताज महल 
जो बनवाया था उसके शहजहां ने 
जो सपना उसने देखा था बरसो 
और सजाया था जिसे बड़े प्यार से 

फूली न समाती थी वो 
जब आकार ले रहा था ये सपना 
पति, पति का घर और घरवाले 
लगता था सब आपना 

फिर समझी काफूरी दिखती 
इसकी दीवारे और छत संगेमरमर के थे 
और इस इमारत में इज़्ज़त नाम के 
नाजुक पर बेहद मजबूत दरवाजे लगे थे 

वो दरवाजे तोड़ निकल जाना चाहती 
पर रिश्तो की बेड़िया उसे  रोक लेती 
और वो सर पीट कर इन हसीं दीवारों से 
सुबकती हुई ही रह जाती 

लोग आते उसके प्यार का ताजमहल देखते 
और हँसते मुस्कुराते तारीफ करते 
और उसका दिल दर्द से तड़प उठता 
और जिस्म के ज़ख्म करहा उठते 

बो किसी तरहा अपने आंसू रोकती 
फिर खुद को इस बेहद ख़ूबसूरत 
ताजमहल रुपी रिश्ते में 
एक बार फिर दफ़न कर देती 

और रह जाती दबी सी चीखे 
जो हंसी की आवाज़ों में खो गयी है 
एक मुमताज़ फिर ताजमहल की 
भव्यता में दफ़न हो गयी है



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