गवाही...





समेटे दर्द अंचल में, नमी ये मेरी आँखों की
गवाही दे रही सबको मेरे बर्बाद होने की

ये टूटे दिल के टुकड़े अब कहाँ ले कर मैं जाऊंगी
यहाँ हर नज़र मुझ पर है इन्हे कैसे छुपाऊँगी

तुम्हे दिल तोड़ने का हक़, भी तो मैंने दिया था
दिल जीतने की ख़्वाहिशें किस को जताऊँगी

तेरे बंधन में बंध कर भी ये दिल आज़ाद सा था
तेरी यादोँ के बंधन को मैं कैसे तोड़ पाऊंगी

मेरी हर बात में  हरदम तेरा ही ज़िक्र आता था
बिना तेरे न जाने अब मैं क्या किसको बताऊंगी

उड़ा ये रंग गलों का, खफा ये  बात होठोँ की
गवाही दे रही सबको मेरे बर्बाद होने की

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