आस जगी है.....


        

गीली गीली मिटटी पर अब जैसे हलकी घास उगी है
ऐसे मेरे मुरझाये से मन में कोई आस जगी है

तारो का आँचल ये ओढ़े चंदा की बारात सजी है
सूरज की आहुति लेके जैसे प्यासी रात जगी है

इतना कुछ कह देने पर भी जैसे कोई बात बची है
आज जुबां पर ताले हैं तो आँखों को सौगात मिली है 

काली सी बदली के झरते हल्की पावनी आज चली है 
मिटटी की सौंधी सौंधी सी उसमें खुशबू साथ बसी है 

खोये खोये ख्वाबों को अब एक नयी पहचान मिली है 
चाहत को चाहने की चाहत देखो मुझमे आज जगी है 

गीली गीली मिटटी पर अब जैसे हलकी घास उगी है
ऐसे मेरे मुरझाये से मन में कोई आस जगी है

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