ख्वाब ज़मीन पर उतरूंगी
ये अलसायी कुम्भ्लाई अधखुली आँखे
उस ख्वाब को पूरा करने की चाहत में
न जाने गुजारी कितनी अनसोई रातें
उन कठिन पालो का हिसाब मांगती हैं
जो गुजरे थे इस काया को निचोड़कर
कुछ पाने की, कुछ करने की चाहत में
यूँ करती रही जीवन भर प्रयास
आज फिर क्यों ये असर्थता का एहसास
उस सुनहरे ख्वाब के टूटने का आभास
क्यों डुलाने लगा है मेरा विश्वास
ओढ़ कर सफ़ेद लबादा खुद पर
वो हौसला कोयले की खान से गुजरने का
क्यों हार कर छोड़ने लगा है साथ
क्यों टूटने लगा है ये जज़्बा
कोयले के कालिख से डर कर
क्यों मृत्यु मौन है मेरा ज़मीर,
क्यों आसमान पाने की चाहत,
ले लेना चाहती है मेरी जमीन
नहीं बुझने न दूँगी इस लौ को
ये तूफ़ान में और दहक उठेगी
मुझे चलना ही है आगे बढ़ना ही है
कदमो की ये रफ़्तार न रुकेगी
आसमान पाने की चाहत में
ये जमीन मुझसे ना छूटेगी
अब ये आंख आसमान पे नहीं
उस विस्तृत क्षितिज पे टिकेगी
जहाँ आसमान भी मेरा होगा
और ये ज़मीन भी मेरी होगी
उन अनसोई रातो और कठिन पलों को
मैं यूँ ज़ाया ना होने दूँगी
आसमान से ऊँचे अपने ख्वाब
एक दिन ज़मीन पर उतारूंगी
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