अमरबेल


वो बालकनी में बैठा लेखा के आने का इंतज़ार कर रहा था।    सच, इस इंतज़ार से उबाऊ कोई चीज़ नहीं है दुनिया में।  
और वैसे भी इंतज़ार के शिव किया भी क्या है उसने पिछले कुछ बरसो से।  तभी पड़ोस के घर से ४ बजने के घंटे की आवाज़ आयी।  सर में कुछ भारीपन महसूस हो रहा था, सोचा की चाय बना कर पि ली जाए।  पैर न जाने क्यों रसोघर में जाने का मन ही नहीं हुआ।  पहले माँ थी तो कॉलेज से लौटने पर एक कप चाय और फिर गरमागरम खाना मिल जाता था।  माँ के जाने के बाद तो वो खाना खुद ही बनता था ।  वो चाय पीना चाहता था पैर बनाने का दिल नहीं हुआ।  सोचा रहा था जब नीलम आती थी तो खाना न सही चाय तो  बना कर वो भी पिला  देती थी।  नीलम का ख्याल आते ही उसका दिल कुछ ठहर गया और गर्मी की ये दोपहर कुछ और बोझिल हो गई।  कमरे और वातावरण के अंदर की नीरसता उसे अपने अंदर सिमटती महसूस दी।  माँ की मौत के बाद जो अकेलापन उसे नीलम के होते महसूस नहीं हुआ तत्वों अब महसूस होता है।  गर्मी में एक पल की रहत नहीं थी।  उसने सोचा चल कर स्नान कर ले फिर कुछ खायेगा।  वो उठ  कर स्नान घर में चला गया और बाथरूम का नल खोल दिया।  डायरेक्ट कनेक्शन से भी पानी इतना गरम आ रहा था जैसे गीजर से आ रहा हो। 

नहाने के बाद बदन कुछ हल्का लगा।  लग रहा था  की बदन का भारीपन  धूल गया।  वो बाल पोछता हुआ  गया और एक कप चाय बना लाया।  चाय लेकर के फिर बालकनी में आ गया और वहां पड़ी कुर्सी पर बैठ कर घर के सामने बगीचें में देखने लगा।  फिर जेब से एक परचा निकल कर पढ़ने लगा।  इकोनॉमिक्स का पेपर था बी ऐ  ३र्ड ईयर का पेपर था।  कॉलेज में परीक्षा चल रही थी और आज इकोनॉमिक्स का लास्ट पेपर था।  वो तल्लीन हो कर पेपर   देखने लगा।  पेपर काफी सरल आया था।  लेखा का पेपर न जाने कैसा हुआ होगा यही सोच रहा था।  वैसे जो भी आया था सब उसका किया हुआ था।  और ये स्टेटिस्टिक  का   सवाल तो उसे परसो ही कराया था।  सारे पेपर का मुआयना करने के बाद उसने उसे  में डाल  लिया।  चाय का कप वहीँ कोने में रख कर वो फिर बालकनी की दीवार पर हाथ टिका कर खड़ा हो गया।  दीवार पैर जहाँ उसने हाथ रक्खा था वह अब धुप नहीं पड़  रही थी पैर कुछ देर पहले पड़ी धुप की गर्मी  उसके अंदर अब भी मौजूद थी।  वो फिर कुछ ऊब से दीवार से हाथ हटा कर पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया और एकबार फिर उसका ध्यान बाग़ में चला गया। वो फिर घर की सीडिया उतर कर बाग़  में पहुंच गया ।   बाग़ में ३-४ बड़े बड़े पेड़ थे वो ये तो नहीं जनता था किस चीज़ के पेड़ थे पर एक बार माली को पड़ोस के बच्चो से कहते सुना था की ये लैला मजनू के पेड़ हैं।  बच्चो ने पुछा था की इन्हे लैला मजनू क्यों कहते हैं? तो माली ने जवाब दिया था, कि देखो  इस पेड़ का पत्ता एक तरफ से हरा और एक तरफ से लाल है।  एक पत्ता पैर दो रंग जो कभी नहीं मिलते। तब से वो भी इस पेड़ को लैला मजनू कहने लगा था।  लैला मजनू का वो पेड़ जो कुछ दिन पहले तक हरा भरा था पिछले कुछ दिनों में उस पर  एक अमरबेल चढ़ आयी थी। 
 अमरबेल दिन प्रतिदिन उसके अवलंभ पर बढ़ती जा रही थी और वह पेड दिन प्रतिदिन सुखता जा रहा था उसने गौर से देखा वह अमर बेल उसके तने पर सर्प की तरह लिपटती बढ़ती अपने डंक के समान वलाया को पेड के स्तंभ में धसती मजबूती से उसे पकड़े हुए थी पेड़ भी उसके आलिंगन को स्वीकार किये मजबूती से उसे थामे खड़ा था


उसे याद आया जब पिछले साल नीलम आई थी तो यू ही एकबार पढ़ने के बाद वो उसे गेट तक छोड़ने चला गया था तो बाग से गुज़रते हुए नीलम ने उसे नई नई कोमल अमर बेल को पेड़ के तने पर चढ़ते हुए उसे दिखाया था। क्या वक्त उसकी पत्तियाँ कितनी कोमल हल्के हरे रंग की थी


वो बोली थी देखो राजेश ये अमरबेल किस प्यार से इस पेड़ का उलंघन कर रहा था फिर वो नज़र के कोने से उसकी और देख कर दी थी। वही अमरबेल अब काफी परिपक्व हो चुकी थी। उसके पत्तो की वो कोमलता चली गई थी उसे देखने के लिए अब कोमल भावनाएं नहीं उठती थीं। उसके वले तने को काफी अंदर तक भेदे हुए थे और हरे ओर कुछ भूरापान के लिए हुए ऐसा लग रहा था कि बेल ने जिंदगी से जिंदगी के आखिरी मिनट सीख लिए थे और जान गई थी कि पेड़ प्यार करने के लिए नहीं सहारा देने के लिए हैजितना उसे लाभ ले सके ले ले । जब से ये बेल उस पेड पर चढ़ी थी तब से ये पेड सूख्ता ही चला जा रहा था और उसके काफी पत्ते झड़ गए थे। पर ना जाने किस उम्मीद और बेबसी में वो पेड आज भी अमरबेल को सहारा और पोषण दे रहा था। यूं ही सोचते सोचते उसका ध्यान अमरबेल के दूसरे सिरे पर गया जो पास के एक और लैला मजनू के पेड़ पर चढ़ गई थी। अमर बेल की बेवफाई पर उसे रश्क हो उठाl किस बेदर्दी से इस पेड़ को चुनो कर वो नए और मजबूत पेड़ की तरफ बढ़ गई थी। आज के जमाने में इसे ही कहते हैं प्रैक्टिकल होना। अभी उसके विचारों की श्रंखला बानी ही थी कि पीछे से लेखा की आवाज सुनाई दी-'सर'

उसने पलट कर देखा, लेखा हाथ में नागरीशास्त्र की किताबें पकडे खड़ी थीl


‘कैसा हुआ आज का पेपर?’

‘सब कुछ किया हुआ था. बहुत अच्छा हुआ.’

पेपर के बारे में बात करते हुए वो सीधियां चढ़ाकर ऊपर आ गए। पेपर का पूरा विवरण लेने के बाद उन्हें नागरिक शास्त्र के पेपर की तैयारी शुरू कर दीl


कॉलेज में परीक्षा की कॉपी चेक की जा रही थी। परीक्षा ख़तम हुए महीना बीत चुका था। गरमी बदस्तूर जारी थी या यू कहिए जून के मध्य में आकर उमर कुछ और गहरी हो गई थी। बदन 2 मिनट में ही पसीना पसीना हो जाता था। कहीं राहत नजर नहीं आ रही थी. कॉपी जंचने के चलते कॉलेज से थिडा लेट हो गया था। शाम ढल चुकी थी. 6:30 बज चुके थे पर धूप अभी अभी उतरी थी।


वो नहा कर नीचे बाग की तरफ बढ़ गया। यूं ही टहलते हुए फिर ना जाने क्यों वो लैला मजनू के पेड़ की कतार के करीब जा कर देखने लगा। वो अमरबेल वाला लैला मजनू का पेड़ जो अब पेड़ से ज्यादा ठूँठ  लग रहा था; उस पर लिपटी अमरबेल के पत्ते अब झड़ चुके थे और उसकी डांडिया जलकर  पेड़ से कुछ अलग हो गयीं थी पर अपनी चाप जरूर तने पर छोड़ चुकी थीं. 

और वहीँ अमर बेल का दूसरा सिरा बराबर के वेद को मजबूती से अपनी गिरफ्त में ले चुका था.

या फिर ये कहिये की पुराने हारे हुए पेड़ को छोड़ कर नए पेड़ के साथ 

नयी जीवनी के साथ बढ़ गया था.

उसने व्यंगात्मक मुस्कान से बेल की नयी हरी पत्तियों को देखा और कहा बेवफाई की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी?  

नीलम ने भी उसके साथ यही किया, जिस हालत में उसे पैसों की जरूरत थी वो बिना फीस लिए उसे टूशन पढ़ता रहा और वो उसके दिल के साथ खेलती रही  क्या क्या वेड किये थे उसने; वो वेड निभाता रहा और नीलम,,,,किस बेदर्दी से उसे छोड़ कर उसकी भावनाओ से खेल कर उससे काम निकाल कर चली गयी  और प्रिंसिपल के बेटे से शादी कर ली. वि भी अमरबेल ही थी. 

इस ख्याल के आते ही उसके जबान कैसैली हो गयी और उससे थूक सटका न गया.  

बाग़ के सभी पौधे मुरझाये हुए थे फूलों के पेड़ मात्र टहनिया रह गए थे. पैर मौसम में जो नीरसता थी वो अब शाम के होने से कुछ काम हुई थी पैर धुप की गर्मी अपने अस्तित्व के कुछ देर पहले मौजूद होने का आभास अभी भी जमीन से उठती गर्माहट से दे रही थी. तभी उसने लेखा को सामने से आते देखा!


लेखा ने आते ही कहा-  ‘ सॉरी थोड़ा लेट हो गयी, दोपहर में थोड़ा आँख लग गयी थी’ और वो दोनों ऊपर कमरे में चले गए.

लेखा आजकल बीएड की तैयारी कर रही थी 

१७ अगस्त  को एंट्रेंस एग्जाम था इसीलिए तैयारी जोरो से चल रही थी  राजेश को लेखा पर भरोसा था वो जरूर परीक्षा पास कर लेगी  

वो काफी होनहार छात्र थी और इसलिए राजेश की बा की सभी छात्रों में सबसे प्रिय भी. बी अ में ससम्मान उत्त्रीण हुई थी

लेखा के आने से वो नीलम की यादो से जुड़े बो कड़वे पल कुछ देर के लिए भूल जाता था  और उसके सवालो और तर्कों में तलीन हो जाता था.


अगस्त बीत चुका  था और सितम्बरमदय मद्यय में  था  बरसात ने गर्मी को लगभग धो दिया था और पेड़ो में भी नयी जान फूंक दी थी.आज  B E D का नतीजा आना था. और बोबेचैनी से लेखा का इंतज़ार कर रहा था की कब वो आ कर अपने सेलेक्ट होने की खबर सुनाएगी।


वो बेचैनी में बाग़ में टहलने लगा, उसके कदमो में अजीब सी तेजी थी  हाथ पीछे बांधे सर झुकाएं वो चहल कदमी कर रहा था. ५-६ कदम चल कर मुड़ जाता और लौट जाता  ऐसा लग रहा था जैसे एक बिंदु से दुसरे बिंदु तक दोलन कर रहा हो. फिर अचानक से उसी लैला मजनू के पेड़ को खड़ा हो कर देखने लगा. 

वो पेड़ जो कुछ महीनो पहले मुरझा चुका था बरसात के आने पर या शायद उस अमरबेल के उतर जाने से कुछ जीवंत दिख रहा था. 

१५-२० दिन पहले ही माली आकर गुलाब की कलमे लगा गया था जिनपर  अब नन्ही नन्ही कलियाँ आ गयीं थी. लगता है माली अमरबेल को भी पूरी तरह से उखाड़ कर फेंक गया था क्योंकि अब अमरबेल का नामोनिशान नहीं दिख रहा था.

तभी लेखा हाथ में मिठाई का डब्बा लिए अवतरित हुई.  और ख़ुशी से चहकती हुई बोली, सर मेरे B E D  एंट्रेंस क्लियर हो गया है  और मुझे अपने ही कॉलेज में मिल गया है.  १५ से क्लास स्टार्ट होंगी  

आप मिठाई खाइयए।  और वो फिर ऊपर कमरे में चले गए.  िपर जा कर केखा ने पुछा सर क्या आप चाय पिएंगे? आज मैं बना कर लाती हूँ.  और वो किचन की तरफ बढ़ गयी.  राजेश को उसका ये अपनापन बहुत भला सा लगा. तभी बालकनी से आता हुआ हवा का रक झोंका उसके बालो को सहलाते हुए निकल गया.  

राजेश ने आवाज लगते हुए कहा- ‘ लेखा वो लाल ढक्कन के डब्बे में चाय पट्टी और उसके पास वाले में चीनी हैं.  

और वो बालकनी में जा कर बहार देखने लगा. वो अंदर गया, तब तक लेकलेखा चाय ले आयी और प्यारी सी मुस्कान के साथ प्याला इसके हाथ में पकड़ा कर वही पलंग पर बैठ गयी.


पिछले कुछ महीनो में लेखा का यूँ रोज राजेश के पास आना दोनों की नजदीकियां बढ़ा गया था. वो दोनों  एक आत्मीयता महसूस करने लगे थे।    अब केखा में पहले जैसा वो तकलीफ और ही हक़ भी नहीं रही थी।  वो अब राजेश से बात करते करते उन्मुक्त खिलखिला कर है देती थी और कई बार शरारत भरी नज़रो से इसे देख कर मुस्कुरा भी देती थी   

अक्टूबर आ चूका था लेखा B E D  पढ़ाई  के लिए उससे पढ़ने आया करती थी  और उनकी नज़दीकियां  प्रतिदिन बढ़ रही थी और उधर वो लैला मजनू का पेड़ बरसात के बाद से नयी पत्तियो के साथ नै जीवनी ले चुका  था. वो फिर से खिला खिला खड़ा था और उसके पास में ही एक नयी अमरबेल उसका आलिंगन करते हुए अपनी नयी पत्तियों के साथ ऊपर बढ़ रही थी।  








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