Kavita- मैं राम लिखूंगी कहते मुझको सीता सा वो अपना नाम मैं राम लिखूंगी त्याग नहीं है सीता सा पर कर्त्तव्य का मान रखूंगी कहते मुझको पार्वती सा शिव शंकर मैं नाम लिखूंगी सबको अमृत देकर ये विष का मैं तो पान करूंगी कहते मुझको राधा सा वो मैं किशना अपना नाम लिखूंगी राधा सी न प्रेम दीवानी चंचल सी मैं श्याम बनूंगी कहते मुझको सौम्य सुंदरी मैं अपना नाम हनुमान लिखूंगी अपने राम का नाम मैं जप के सबका बेड़ा पार करूंगी जो सरस्वती की सौम्यता है तो काली सा गुस्सा भी मुझमे प्रतिशोध है द्रौपदी सा और दुर्गा सी शक्ति भी मुझमें मैं ऐसा कोई काम करूंगी की सार्थक अपना नाम करूंगी दुनिया उसको याद रखेगी मैं जो भी अपना नाम लिखूंगी
चाय सिर्फ चाय नहीं, एक बहाना है यारो के साथ बैठे दिल की बात सांझा करने का भागती जिंदगी मैं थोड़ा रुक सकून की सांस लेने का कुछ घड़ी ख्वाइशों और ख्वाबो में खो जाने का गिरती बारिश में दूर से ही बैठे बैठे भीगने का बीती बिछड़ी यादों में थोड़ा और गहरा डूबने का हर चुस्की के साथ जिंदगी और ज़्यादा महसूसने का दोस्तों, ये सिर्फ चाय नहीं एक बहाना है फिर चलने से पहले, कुछ ठहरने और संभलने का बाहर का शोर छोड़, अपने भीतर झाँकने का तुमसे दिल ही दिल में दो चार बातें करने का बहाना है,खूबसूरत जिंदगी को खामोशी से सराहने का चाय के धुए से कुछ खुशबू और गर्मी चुराने का और कितने अनमोल हैं ये पल, खुद को बताने का चाय सिर्फ चाय नहीं, एक बहाना है ये कहने का कि ज़िन्दगी ठहर जरा, मुझे कुछ और जीने दे कुछ और अपनी मीठी गर्म चुस्किया लेने दे हाथो से फिसलने से पहले मेरी सांसे छूने दे चल पडूंगा उस रास्तें पे जहाँ तू ले चलेगी बस एक पल को इसी मोड़ पे खड़ा रहने दे जो जैसा है उसे कुछ और देर वहीँ थमा रहने दे ...
मन मेरा बेचैन है, या ऋतुओ का फेर है। ठण्डी सी हवाए क्यों लगती है वज्र सी, लेती इम्तेहान मेरा हर घड़ी सब्र की। हर लम्हा रुक गया है, बैठा है पास मे, आयेंगे पिया मेरे, है ऐसी ही आस मे। इतना समझाया इसे, आभी कुछ तो देर है , मन मेरा बेचैन है, या ऋतुओं का फेर है। बारिश की बूंदे यूँ, मन को छू रही है क्यों, बैठी हूँ दूर फिर भी तन भिगो रही है क्यों। पत्तों की सरसराहट हर तरफ है गूंजती, कदमो की हर आहात, कानो से पूंछती। दृश्य मैं हो तुम ही तुम, ये आँखों का हेर है, मन मेरा बेचैन है या ऋतुओं का फेर है। आभी तक महसूसती हूँ उंगलियों की छाप जो, पिंघल के कुछ उड़ गया है, तन मेरा है भाप जो। कमरे के कोने में चादर को ओढ़ के , बैठी समेट के और पैरों को मोड़ के। सन्नाटा छाया है, ख्वाबों का घेर है , मन मेरा बेचैन है या ऋतुओं का फेर है।
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