जिद

हमसफ़र बानी शिकस्त साथ चलती रही
मैं  वो सीखती रही जो ये सिखाती रही
टूटी तो मैं थी कई बार मगर
उम्मीद ही थी जो हौसला बढाती रही


सूरज ने था जब बदलो का पर्दा किया
मैं अँधेरे में दिए हिम्मत के जलती रही
चाँद ने जब लूटी थी मेरे सितारों की चमक
मैं  साहस के जुगनुओं से रातें जगमगाती रही


हवाओं ने कभी जब बदला था रुख अपना
मैं मेहनत का लंगर डाल नौका बढाती रही
किस्मत की पतंग ने भी लड़ाये थे पेंच जब
डोर मैं सब्र की हाथों में थामे ही रही

तेज तूफानों ने जो थे वार कई बार किये
मैंने टूटी हुई कश्ती में हाथ पतवार किये
कभी जो पैर मेरे डगमगाए थे जरा
मेरी नज़रे पर साहिल के उस पार रही

जो भी लिखा था गीले से साहिल पे मैंने
सागर की ये लहरे उसे मिटाती ही रही
मैंने सीखा है इन लहरों से जिद करना मगर
घरोंदे रेत के, ये गिरती, और मैं बनती ही रही






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