मन मेरा बेचैन है


















मन मेरा बेचैन  है, या ऋतुओ  का फेर है।
ठण्डी सी हवाए क्यों लगती है वज्र सी,
लेती इम्तेहान मेरा हर घड़ी सब्र की।
हर लम्हा रुक गया है, बैठा है पास मे,
आयेंगे पिया मेरे, है ऐसी ही आस मे।
इतना समझाया इसे, आभी कुछ तो देर है ,
मन मेरा बेचैन है, या ऋतुओं का फेर है।



बारिश की बूंदे यूँ, मन को छू रही है क्यों,
बैठी  हूँ दूर फिर भी तन भिगो रही है क्यों।
पत्तों की सरसराहट हर तरफ है गूंजती,
कदमो की हर आहात, कानो से पूंछती।
दृश्य मैं हो तुम ही तुम, ये आँखों का हेर है,
मन मेरा बेचैन है या ऋतुओं का फेर है।



आभी तक महसूसती हूँ उंगलियों की छाप जो,
पिंघल के कुछ उड़ गया है, तन मेरा है भाप जो।
कमरे के कोने में चादर को ओढ़ के ,
बैठी समेट के और पैरों को मोड़ के।
सन्नाटा छाया है, ख्वाबों का घेर है ,
मन मेरा बेचैन है या ऋतुओं का फेर है।

Comments

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  2. Wow di very nice. You are so good in writing :-)

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