उधार रही ज़िन्दगी

शिकायते ज़िन्दगी की ज़िन्दगी से 


कितना संवारते रहे पर बेजार रही ज़िन्दगी

एक ज़िन्दगी तुमपे उधार रही ज़िन्दगी 


 मैं घुँगरू पहन तेरी हर ताल पे नांची 

फिर भी जाने क्यों तू बेताल रही ज़िन्दगी 


बड़े सलीके से मिला करती हूँ सबसे 

पर अंदर बे तमीज बे हाल रही ज़िन्दगी 


मुस्कानो के मुखोटे लगा कर रख्खे हैं  बस 

मैं ही जानती हूँ किस कदर बर्बाद रही ज़िन्दगी 


और मरने को चाहे आज मर जाऊं मैं 

पर जीते जी भी तो शमशान रही ज़िन्दगी 


इस जीने को भी क्या जीना कहोगे तुम 

जब तक रही एहसान रही ज़िन्दगी 


सब लुटा के भी अपना ईमान बचाया मैंने 

पर मुझसे ही क्यों बेमान रही ज़िन्दगी

~kavitaNidhi


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