नारी की व्यथा
वो कभी न कह पाऊंगी
जो अक्सर सोचती हूँ
पर खुद को रोकती हूँ
सबसे छुपाती हूँ
पर खुद से बोलती हूँ
चुप्पी तोड़ती हूँ
पर फिर सोचती हूँ
वो सब न कह पाऊंगी
हक़ मेरा जो है आज
कभी लगता है मांग लूँ
डर जाती हूँ फिर
क्या टूटेगा ये आंक लूँ
हिम्मत जोड़ती हूँ
पर फिर सोचती हूँ
वो सब न मांग पाऊंगी
कितने गिले कितने शिक़वे
पन्नो पे लिखें
कितनी रुसवाइयों के सिलसिले
मेरे मांझी पर पड़े
कब इस दर्द के घनेरे से
खुद को निकाल पाऊंगी
पर फिर सोचती हूँ
ये कभी न कर पाऊंगी
जो सदियों से था
वो आज भी है
मेरा अस्तित्व गुमनाम था
जो आज भी है
जहाँ मैं रहती थी
वो आज भी है
जहाँ मैं रहती हूँ
वो आज भी हैं
पर किसी भी घर को
सोचती हूँ क्या अपना कह पाऊंगी
शायद ये न कह पाऊंगी
कभी माँ बाबा के खातिर
कभी भाई बहनोंके खातिर
कभी समाज के खातिर
तो कभी बच्चो के खातिर
लगता है चुप ही रह जाऊंगी
बस सोचती हूँ हर पल
वो सब न कह पाऊंगी
मेरी भी इच्छाएं है
कुछ खुद से करने की
थोड़ा उठने की
थोड़ा उड़ने की
खुल के हसने की
खुद केलिए जीने की
ज़िन्दगी को अपने तरीके से
बाहों में भरने की
अपना घर अपना नाम
और खुद का वजूद कमाने की
पर लगता है इस समाज से
अकेले न लड़ पाऊंगी
सोचती हूँ पल पल
क्या ये सब कह पाऊंगी
क्या ये सब जी पाऊंगी
Comments
Post a Comment