एहसास शब्दों के मोहताज़

एहसासों को, अल्फाज़ो की, दीवारों के, तहखाने में,
गुमसुम सा हो तिलतिल अक्सर मैंने रुकते घुटते देखा

आवाज़ों के धागे लेकर, इस भाषा को जाले जैसा,
मैंने हर पल अंधियारे में कुछ नया उधड़ते बुनते देखा

चिल्लाते  करहाते से, दिल में घुट कर रह जाते से
इस दर्द को मैंने शब्दों की मिन्नत अक्सर करते देखा

इन लफ्ज़ो के चक्रव्यहू में, अभिमन्यु सा खो जाता है
इस धोखे में आ जाता जो, वो भाव तड़पते मरते देखा

कहाँ कभी लिख पाती है ये कलम मेरे दिल के अरमान
इस ज्वार को भाटे सा, हाँ  सदा आँखों से गिरते देखा

इन आंसूं को पीं कर ही, क्यों नहीं मुझे तुम पढ़ लेते
इन बूंदो को अक्सर मैंने, गिर ख़ाकजदा होते देखा 

काश मेरे अश्क़ो से स्याहा, स्याही कोई तो बन पाती
मैं वो भी फिर लिख पाती जो, ना दर्द कभी तुमने देखा

एहसासों को, अल्फाज़ो की, दीवारों के, तहखाने में,
गुमसुम सा हो तिलतिल अक्सर मैंने रुकते घुटते देखा



गिर ख़ाकजदा होते देखा 

न अल्फाज़ो, न आवाज़ों का मोहताज़ मुझे होना पड़ता
तेरी  आँखो ने गर आँखों से संवाद कोई करके देखा 
गर आँखों ने तेरी आँखों में गहरा मेरी उतरके देखा 


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