वो पल ...मैंने जिए थे

घर की छत
सर्दी की दोपहर
पास में रेडियो
पुराने कुछ गाने
टूटी सी एक  खाट
मूंगफली के दाने


दौड़ती गिलहरियाँ
दाने कुतरती
गेंहूं धुले हुए
छत  पे थे सूखते
चहकती गौरैया
दाने बटोरती

बदन तो चीरती
होती महसूस ये
सूरज की गर्म गर्म
नर्म सी धूप ये
ठिठुरे से हाथो को
करती हैं गर्म ये

पड़ोसी के घर सेआती 
चूल्हे की ये लहक
पराठों की खुशबु मिली
मक्खन की हैं महक

सामने की छत पे
धुप देने के लिए
रक्खे कुछ रंगीन
अचारों के डब्बे

साथ फैली चादर पे
सूखते ये पापड़
खट्टा नमकीन ये
रस मुँह में हैं घोलते


दूर कही दूसरी
एक और छत पे
पतंगे उड़ाते
कुछ छोटे से लड़के

आसमा में झांक के
पतंगों को देखना
मुश्किल करे बड़ा
ये सूरज चमकता 


ये ही वो लम्हे हैं
मैं सोचने जो बैठू 
लगता है आज  भी
हूँ उस ही उम्र में
सर्दी की दोपहर में
घर की उस छत पे


बिलकुल हैं ताज़ा
ये मेरे जहन में
क्योकि ये ही वो पल थे
जो मैंने जिए थे…जो  मैंने जिए थे
बाकि तो सब बस
कट सा रहें है
ये ही वो पल थे
जो मैंने जिए थे… मैंने जिए थे






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