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Showing posts from August, 2020

माँ से पहले मैं नारी हूँ

माँ से पहले मैं नारी हूँ मैं रही दिए की लौ बन कर  घर आंगन रोशन करती हूँ  मत खेलो मेरे जज़्बातों से  अंगार भी मैं बन सकती हूँ  मैं भड़क उठी जो अग्नि सी  ये गांव जला भी सकती हूँ  जो हवा तूफानी लाओगे  तो ख़ाक तुम्हे कर सकती हूँ  मंदिर में अपने रखते हो  पूजा भी मेरी करते हो  माँ कह कर आगे तुम मेरे  नत मस्तक अपना करते ही  हाँ वही मैं सीता मैया हूँ  हाँ वही मैं राधा रानी हूँ  हाँ वही मैं रक्षा करने वाली  माँ दुर्गा और भवानी हूँ  काली भी है अवतार मेरा  मैं रुद्र रूप धर  सकती हूँ  और याद रहे गर चाहूँ तो  मैं चंडी भी बन सकती हूँ  हर रूप में माँ स्वीकार है जब  मुझको भी तुम स्वीकार करो  माँ से पहले मैं नारी हूँ  हर नारी का सम्मान करो  माँ से पहले मैं नारी हूँ  हर नारी का सम्मान करो.......  ~Kavita nidhi

अभी और भी हैं

अभी   और   भी   हैं  ... ठोकरो   से   हो   न   विचलित   रास्ते   कई   और   भी   हैं   अफ़सोस  ( सोग)   ना   कर   हार   का   तू   मंज़िलें   अभी   और   भी   हैं   आस   का   एक   दीप   बुझता   सौ   दिए   नए   और   भी   हैं   न   मिला   जो   चाहा   था   पर   चाहतें   अभी   और   भी   हैं   एक   यही   बस   गम   नहीं   है   दर्द   कितने   और   भी   हैं   आज   उनका   साथ   छूटा   पर   सहारे   और   भी   है    प्यार   कितना   है   किया   पर   प्यार   मुझमे   और   भी   है   मर   मिटे   हम   उनपे   लेकिन   ज़िन्दगी   अभी   और   भी   है   तेरी   रूह   का ...

स्वतंत्रता दिवस

स्वतंत्रता दिवस मना रहे, दिल में वो मज़ा नहीं  जितना हमने चाहा था, देश आगे बढ़ा नहीं  माना प्रगति हो रही, दिशाए कुछ सही नहीं  माना उन्नति की हमने, रफ़्तार तेज हुई नहीं  आसमा को छु लिया, उड़ान भी ऊँची हुई  जमी पे कैसे रहना है, शऊर ये सीखा नहीं  दिल में प्यार है अभी, पर बात वो रही नहीं  लड़ते हैं हम आज भी, पर देश के खातिर नहीं  आतंकवाद बढ़ रहा है, कोशिशे नाकाम हुई  नेता से कुर्सी डरी, और बढ़ गयी है धांदली पूछो गरीब से है क्या, आज़ादी पता नहीं  स्थिति गरीब की, आज भी सुधरी नहीं  सपने जो भी देखे थे साकार वो हुए नहीं  संस्कृति इस देश की, जाने कहाँ पे खो गयी  फिर भी मेरे भारत सा, देश कोई दूजा नहीं  दुनिया हमने जो देखी, इंडिया प्यारी लगी 

नारी की व्यथा

वो   कभी   न   कह   पाऊंगी जो   अक्सर   सोचती   हूँ   पर   खुद   को   रोकती   हूँ   सबसे छुपाती हूँ  पर खुद से बोलती हूँ  चुप्पी तोड़ती हूँ  पर फिर सोचती हूँ  वो सब न कह पाऊंगी हक़ मेरा जो है आज  कभी लगता है मांग लूँ  डर जाती हूँ फिर  क्या टूटेगा ये आंक लूँ  हिम्मत जोड़ती हूँ  पर फिर सोचती हूँ  वो सब न मांग पाऊंगी  कितने गिले कितने शिक़वे  पन्नो पे लिखें कितनी रुसवाइयों के सिलसिले  मेरे मांझी पर पड़े कब इस दर्द के घनेरे से  खुद को निकाल पाऊंगी  पर फिर सोचती हूँ  ये कभी न कर पाऊंगी  जो सदियों से था  वो आज भी है  मेरा अस्तित्व गुमनाम था  जो आज भी है  जहाँ मैं रहती थी  वो आज भी है  जहाँ मैं रहती हूँ  वो आज भी हैं  पर किसी भी घर को  सोचती हूँ क्या अपना कह पाऊंगी  शायद ये न कह पाऊंगी  कभी माँ बाबा के खातिर  कभी भाई बहनोंके खातिर  कभी समाज के खातिर  तो कभी बच्चो के खातिर...