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Showing posts from June, 2020

एहसास शब्दों के मोहताज़

एहसासों को, अल्फाज़ो की, दीवारों के, तहखाने में, गुमसुम सा हो तिलतिल अक्सर मैंने रुकते घुटते देखा आवाज़ों के धागे लेकर, इस भाषा को जाले जैसा, मैंने हर पल अंधियारे में कुछ नया उधड़ते बुनते देखा चिल्लाते  करहाते से, दिल में घुट कर रह जाते से इस दर्द को मैंने शब्दों की मिन्नत अक्सर करते देखा इन लफ्ज़ो के चक्रव्यहू में, अभिमन्यु सा खो जाता है इस धोखे में आ जाता जो, वो भाव तड़पते मरते देखा कहाँ कभी लिख पाती है ये कलम मेरे दिल के अरमान इस ज्वार को भाटे सा, हाँ  सदा आँखों से गिरते देखा इन आंसूं को पीं कर ही, क्यों नहीं मुझे तुम पढ़ लेते इन बूंदो को अक्सर मैंने, गिर ख़ाकजदा होते देखा  काश मेरे अश्क़ो से स्याहा, स्याही कोई तो बन पाती मैं वो भी फिर लिख पाती जो, ना दर्द कभी तुमने देखा एहसासों को, अल्फाज़ो की, दीवारों के, तहखाने में, गुमसुम सा हो तिलतिल अक्सर मैंने रुकते घुटते देखा गिर ख़ाकजदा होते देखा  न अल्फाज़ो, न आवाज़ों का मोहताज़ मुझे होना पड़ता तेरी ...

सन्नाटा

सन्नाटा मैं सन्नाटा  हूँ मैं मौन नहीं हूँ मेरी एक आवाज़ है कभी सुनी है तुमने हाँ, वही जिसे तुम सायं सायं झायें  झायें घाएँ घाएँ कहते हो मुझमे शब्द नहीं हैं पर मैं बहुत कुछ कहता हूँ बातें जो समझा नहीं पाती मैं  वो भी समझा देता हूँ कुछ न कह कर भी मैं सब कह देता हूँ  आसान नहीं है मेरा सामना करना बड़े बड़े बातों में धुरंदर मेरे सामने टिक नहीं पाते ध्वनि, कोलाहल मैं करता नहीं आवाज़ों की चीत्कार मैं भरता नहीं कहने और सुनने पर निर्भर नहीं शब्दों के जाल में बुनता नहीं समझो मेरा वजूद मेरे कमरे में आते ही एक बेचैनी सी आ जाती है लोग नज़रे मिला नहीं पाते  बातें दुनिया के लिए हैं मैं तेरा अपना हूँ सुन, तेरे अंतर्मन से जुड़े हैं मेरे ये तार दर्पण हूँ तेरे अस्तित्व का इसलिए तो अचानक कमरे में मेरे आने से तू घबराता है खुद को इस तरह भीड़ में अनवरत सा पाता हैं और हाँ, जब तू मेरे वजूद को अपना लेगा और मुझे अपना मित्र बना लेगा मुझसे आकर तन्हाई में मिलेगा तब मेरे दोस्त, मुझमे ही तू खुद को पा लेगा मैं सन्नाटा हूँ तेरा अपना  खुद में ही तू मुझको पा लेगा ~ kavit...

बँटवारा

माँ बाबा अब चले गएँ है, घर तो अब बंट जायेगा घर का अपना आंगन था जो आंगन कहाँ अब रह जायेगा  सुनो भइया, तुम सब रख लेना बस मुझको वो तकिया दे देना जिस पर माँ अक्सर सोती थी हम बच्चो के दर्द पे अक्सर रातों को, सर रख रोती थी जब भी माँ की याद आएगी रात में जब ना नींद आएगी सर रख उसपे सो जाऊंगी माँ की गोद मै पा  जाऊंगी  माँ बाबा अब चले गएँ हैं घर तो अब बंट जायेगा घर का अपना आंगन था जो आंगन कहाँ अब रह जायेगा  ये घर तुम दोनों का है अब करलो कैसे भी बँटवारा  बस उस अमिया के दरखत को भैया देखो मत कटवाना  अगले बरस जब घर आऊँगी तुम संग मैं रह कर जाऊंगी माँ बाबा अब कहाँ मिलेंगे यादें उनकी जी जाऊंगी कुछ पल को इस खाट पे बैठे इस अमिया के दरखत नीचे बाबा का एहसास मिलेगा उनको कुछ महसूर करूंगी  बाकी  सब चाहे तुम भैया आधा आधा रख लेना मुझको बस ये पाटा देकर बात मेरी तुम रख लेना चौके में अक्सर अम्मा जब इस पर  रोटी बेला करती थी रोटी कैसे बनती है ये अक्सर मैं देखा करती थी कहाँ बना पाती  हूँ अब तक गोल गोल म...