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Showing posts from May, 2020

मुर्दा- कहानी

वह आज फिर उस गेट के सामने खड़ा था जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में नगरपालिका लिखा था इस जगह तो देख कर ही उसे अब झल्लाहट होती थी वह गेट पर  लगे नगरपालिका के बोर्ड को देख कर ठिठक गया और अनायास ही उसके मुँह से निकल गया ‘ क्या इसी आज़ादी, इसी व्यवस्था के लिए हम अंग्रेजो से कई दशक लड़ते रहें’... तभी चपरासी को पास से गुजरता देख इसने पुछा ‘ आज बड़े बाबू छुट्टी पर तो नहीं हैं?' ‘अरे अंदर जा कर पूछ नहीं सकते क्या? देखते नहीं में कितने जरूरी काम से जा रहा था. हाँ आएं है ' चपरासी मुँह घुमा कर चला गया. वह भीतर गया और बड्ड बाबू की टेबल पर जा कर बोळा ‘ साहब मैं शामनाथ, वो आपने कहा था किं मुझे.......’ ‘ देखो मैंने पहले भी कहा था क़ि अपने ज़िंदा होने का सबूत लाओ तभी कुछ कारवाही की जा सकती है! एक एप्लीकेशन लिखो और ये फोर्म भी भरो तभी तुम्हे तुम्हारी ज़मीन और मकान तुम्हारे भाइयों से वापस मिल सकतें हैं’ ‘ साहब मैं ये एप्लीकेशन लाया हूँ और ये फोर्म भी भर दिया है। पर ........सबूत नहीं जुटा पाया।’ वो दबी आवाज़ में बोळा। ‘ देखो, बिना सबूत कौन मानेगा की तुम ज़िंदा हो ?’...

अम्मा बड़ा याद आयीं

आज फिर अम्मा बड़ा याद आयीं कल रात वो मेरे सपने में आयीं मिलने की उनसे, तीव्र इच्छा जगी है याद में उनकी क्यों आँखे भर आयी आज फिर अम्मा बड़ा याद आयीं......... मेरी वो दादी थी, सब कहते थे अम्मा खुद में मगन, घर की धुरी थी अम्मा कमरे में उनके थी एक चारपाई कार्निस पे होती डब्बा भर मिठाई लाडू बनती थी सबको खिलाती थी देतीं थी रोटी पे रख के मलाई आज फिर अम्मा बड़ा याद आयीं.......... मेरी वो दादी थी, सब कहते थे अम्मा खुद में मगन, घर की धुरी थी अम्मा कॉटन की साड़ी और उस पे कढ़ाही सीधे पल्ले की साड़ी में लगती अलग थी रंगो भरे सुन्दर से स्वेटर बनती थी सबसे अलग होती जिनकी बुनाई आज फिर अम्मा बड़ा याद आयीं........... मेरी वो दादी थी, सब कहते थे अम्मा खुद में मगन, घर की धुरी थी अम्मा आंगन में बैठ उनका मठ्ठी बनाना मोहल्ले की औरतों को घर में बुलाना पापड़ अचार मठ्ठी सबको सीखना स्वेटर के सबको डिज़ाइन दिखाना आज फिर अम्मा बड़ा याद आयीं........... मेरी वो दादी थी, सब कहते थे अम्मा खुद में मगन, घर की धुरी थी अम्मा नु...

वो पल ...मैंने जिए थे

घर की छत सर्दी की दोपहर पास में रेडियो पुराने कुछ गाने टूटी सी एक  खाट मूंगफली के दाने दौड़ती गिलहरियाँ दाने कुतरती गेंहूं धुले हुए छत  पे थे सूखते चहकती गौरैया दाने बटोरती बदन तो चीरती होती महसूस ये सूरज की गर्म गर्म नर्म सी धूप ये ठिठुरे से हाथो को करती हैं गर्म ये पड़ोसी के घर सेआती  चूल्हे की ये लहक पराठों की खुशबु मिली मक्खन की हैं महक सामने की छत पे धुप देने के लिए रक्खे कुछ रंगीन अचारों के डब्बे साथ फैली चादर पे सूखते ये पापड़ खट्टा नमकीन ये रस मुँह में हैं घोलते दूर कही दूसरी एक और छत पे पतंगे उड़ाते कुछ छोटे से लड़के आसमा में झांक के पतंगों को देखना मुश्किल करे बड़ा ये सूरज चमकता  ये ही वो लम्हे हैं मैं सोचने जो बैठू  लगता है आज  भी हूँ उस ही उम्र में सर्दी की दोपहर में घर की उस छत पे बिलकुल हैं ताज़ा ये मेरे जहन में क्योकि ये ही वो पल थे जो मैंने जिए थे…जो  मैंने जिए थे बाकि तो सब बस कट सा रहें है ये ही वो पल थे जो मैंने जिए थे… मैंने जिए थे

मेरे हर सवाल के....तुम बनो जवाब से....

रात  की नमी है जो ओस सी जमी है जो ये सुर्ख लाल गाल पे अश्क़ सी थमी है जो ये दिल में घनीभूत थी पिंघल के गिरी है जो गाल से ये बह गयी दिल को छु रही है जो याद फिर मचल गयी आँख यूँ भरी है जो दिल को मेरे खल गयी तेरी ये कमी है जो कल खिली काली थी वो मुरझाई सी गिरी है जो एक लड़ी हंसी की बिखरी सी पड़ी है जो टूटी इन सांसों को फिर से तुम पिरो भी दो इन लबो को छू के तुम थोड़ी सी हंसी भी दो दिल में  रह जाओ ना यूँ ना पिंघलो अश्क़ से जहन  में बसे रहो बनके एक नक्श से आँख में ठहरो जरा यूँ ने बिखरो ख्वाब से मेरे हर सवाल के  तुम बनो जवाब से